समस्तीपुर जिला के पूसा प्रखण्ड का वैनी गांव, एक ऐसा पुरातात्विक स्थल है, जिसे इतिहास के दर्जनों शोध पत्र में गंभीरता से रेखांकित किया गया है, हिन्दी एवं मैथिली साहित्य में इस स्थल से जुड़े राजवंश की चर्चा बार बार आती है, दावा तो यहां तक किया जाता है कि यह क्षेत्र किसी समय में मिथिला राज्य की राजधानी भी रहा है, लेकिन जब इस ऐतिहासिक स्थल को एक मुक्कमल पहचान देने की बात होती है, तो इसे, नजरंदाज करते हुए, टरका दिया जाता है,
समस्तीपुर जिला के पूसा प्रखण्ड का वैनी गांव, इतिहास के दर्जनों शोध ग्रन्थों में, तत्कालीन मिथिला क्षेत्र की राजधानी, के अलावे विद्यापति की कर्मभूमि,एवं ओइनवार राजवंश से जुड़े स्थलों, के रूप में चिन्हित किया जाता रहा है, स्थानीय विद्वानों का दावा है कि विद्यापति का बचपन यहीं गुजरा है, विद्यापति ने अपनी पुस्तक कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका की रचना इसी गांव में रहकर किया है,
ऐतिहासिक महत्व के इस वैनी गांव में, ओइनवार राजवंश के शासक शिवसिंह के नाम से दो टीला हैं, पुरातात्विक महत्व के इन दोनों टीलाओं के आस पास पुरातात्विक अनुसंधान की गहन आवश्यकता है, ग्रामीणों के अनुसार, इस स्थल से स्वर्ण सिक्का, मिट्टी के बरतन, काले पत्थर की मूर्ति, जांता चक्की, से लेकर नर कंकाल तक इन टिलों से प्राप्त हो चुके हैं,
इतिहास के पन्नों से ज्ञात होता है कि इसी ओइनवार राजवंश के शासक शिवसिंह के शासन का परचम चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राचीन मिथिला राज्य के अलावे बंगाल के पंचगौर तक था,
आखिर क्या है वैनी गांव का इतिहास, और क्या है ओइनवार राजवंश का विद्यापति से सम्बन्ध । आज हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर विद्यापति ने अपनी दो पुस्तक कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका की रचना क्या आज के इसी वैनी गांव में रहकर किया है,
आइये समझते हैं, वैनी से जुड़े तथ्य एवं इससे जुड़े दावों की पड़ताल करती न्यूज भारत टीवी की यह रिर्पोट, जिसे हम सुगमता हेतु छ:ह भागों में विभाजित करके आप तक पहुंचाने का प्रयास किया है,
1. ओइनी गांव, 2 इतिहास के पन्नों में ओइनी गांव की पहचान, 3. कौन थे ओइन ठाकुर 4 ओइनवार राजवंश के शासक, 5 विद्यापति की कर्मस्थली ओईनी, 6 ओइनी गांव का पुरातात्विक महत्व
सबसे पहले जानते हैं कहां है ओइनी गांव,
आज ओइनी गांव के इतिहास का हर पन्ना उपेक्षित है, तेरहवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक प्राचीन मिथिला राज्य के सियासत एवं सत्ता का केन्द्र बिन्दु रहा यह गांव, आज अपने अतीत पर मौन है,
समस्तीपुर जिला के पूसा प्रखण्ड के वैनी गांव का इतिहास, समय के साथ बदलता रहा है, बौद्ध काल में कभी अयणी गांव के नाम से जाना जाने वाला यह गांव, बारहवीं शताब्दी में, समय के साथ बदलते बदलते ओइनी गांव के रूप में जाना जाने लगा, मुगल काल के बाद अंग्रेजो के शासन काल में ओइनी शब्द अंग्रेजी उच्चारण दोष के कारण, वइनी के रूप में उच्चारित होने लगा, ओइनी का नाम विस्तारित होकर, दस्तावेज में आज चकले वैनी हो चुका है,
मुजफ्फरपुर समस्तीपुर रेलखंड पर अवस्थित खुदी राम बोस पूसा रेलवे स्टेशन, इसी वैनी गांव में है, खुदी राम बोस का पूसा के साथ जुड़ाव, स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा एक अलग घटना खण्ड है, लेकिन कभी इस रेलवे स्टेशन का नाम वैनी पूसा ही था, जो वैनी पूसा स्टेशन से आज खुदी राम बोस पूसा हो चुका है,
बैनी गांव पर शहरी परिवर्तन का असर, एवं समीप में स्थित राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा के प्रभा मंडल का प्रभाव, उसके नाम पर इतना असर डाला कि, आज हालत यह है कि वैनी गांव अब पूसा रोड के रूप में ही जाना जा रहा है, वैनी शब्द भी जुबान से गायब होने के कगार पर है,
ओइनी के ओइनवार राजवंश की चर्चा हो और इस राजवंश के राजकवि विद्यापति की चर्चा नहीं हो, ऐसा हो नहीं सकता है, विद्यापति की लेखनी ने ओइनवार राजवंश के राजाओं को, मिथिला के इहिास में अमर बना दिया है, विद्यापति अपनी लेखनी के बलबूते हिन्दी एवं मैथिली साहित्य के आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं,
विद्यापति ओइनवार राजवंश के जिन राजाओं के आश्रय में रहकर अपनी रचनाओं को लिखा है, उनके नाम विद्यापति के साहित्य में उल्लेखित हुए हैं, कीर्ति सिंह देव, शिव सिंह देव, भवसिंहदेव, एवं लखिमा रानी का नाम, विद्यापति के साहित्य में आदर पूर्वक उल्ल्लेखित हुए हैं,
वैनी के बारे में मैथिली साहित्य एवं ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि इस स्थल को, प्राचीन मिथिला के मैथिल ब्राह्मणों की एक मात्र राजवंश ओईनवार की प्रथम राजधानी होने का गौरव प्राप्त है, जिसकी स्थापना इसी गांव के निवासी कामेश्वर ठाकुर के द्वारा किया गया था, इसी राजवंश में भोगेश्वर ठाकुर, गणेश्वर ठाकुर, शिवसिंह, लखिमा देवी, भैरव सिंह समेत सत्रह राजा हुए,
इसी राजवंश के तीसरी पीढ़ी के शासक गणेश्वर ठाकुर के राज दरबार में विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर मुख्य सभासद एवं राज पंडित थे, प्रख्यात साहित्यकारों, इतिहासकारों, समकालीन ग्रन्थों व अभिलेखों के अनुसार महाकवि विद्यापति ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 20-22 वर्ष यहाँ बिताये थे । कीर्तिलता, जैसे कई ग्रन्थों के अलावा पदावली के बहुत से हिस्से की रचना उन्हों ने यहीं रह कर की थी।
2 इतिहास के पन्नों में ओइनी गांव की पहचान
ओइनी गांव के पहचान पर विद्वानों के बीच कभी कोई विवाद नहीं रहा है, हाल के बीते दो दशक में इस पर दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं, आजादी से पूर्व डा. गिर्यसन द्वारा प्रकाशित जर्नल में इसे चिन्हित किया जा चुका है, (दरभंगा, जिला गजेटियर, पृष्ठ 33 से 34 के अनुसार दरभंगा ओइनवारा के अधीन 1325-1525 ई, तक अस्थिरता की एक अस्थायी अवधि के बाद नियंत्रण में आ गया, जिसके संस्थापक कामेश्वर ठाकुर थे, इस राजवंश के हिंदू सरदारों को मुस्लिम विजेताओं ने अबाधित छोड़ दिया था, जिन्होंने आगे चलकर पूरे मिथिला के अलावे बंगाल के गौर तक विजय प्राप्त कर ली थी,
वहीं इस राजवंश से जुड़ी मान्यता एवं ओइनी की पहचान को, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी के अलावे मुजफ्फरपुर जिला प्रशासन के साइट पर अंकित करते हुए प्रतिष्ठापित किया जा चुका है,
इसे विशेष रूप से समझने के लिए ओइनवार राजवंश के संस्थापक राजा कामेश्वर ठाकुर के समय की परिस्थितियों पर नजर डालना होगा, कर्णाट वंश के अंतिम शासक हरिसिंह द्वारा नेपाल से ही अप्रत्यक्ष रूप से शासन करते रहने के उपरान्त, मिथिला के शासन का बागडोर ओइनवार राजवंश के संस्थापक कामेश्वर ठाकुर के हाथों में आ गया, ओइनवार राजवंश में कुल सत्रह राजाओं के शासन का जिक्र इतिहास के पन्नों में दर्ज है, इतिहास में इस राजवंश को सुगौना राजवंश के नाम से भी उल्लेख किया गया है, जिसका शासन उत्तर बिहार, बंगाल एवं नेपाल के तराई क्षेत्रों को मिलाकर बने इस मिथिला राज्य पर 1325 ईस्वी से 1526 ईस्वी तक रहा, इस राजवंश के शासकों ने समस्तीपुर, दरभंगा एवं मधुवनी में विभिन्न जगहों पर, अपने नाम के अनुसार नगर बसा कर राजधानी को स्थापित करते रहे हैं, एक सौ चौहत्तर वर्ष के शासन काल में ओइनवार राजवंश के शासकों के द्वारा दस जगहों पर राजधानी बनाये जाने की बात प्रकाश में आ चुकी है, ओइनी विरसिणपुर भवग्राम देवकुली गजरथपुर पद्मा विसौली सुगौना बरूआर एवं रामभद्रपुर है,
3 कौन थे ओइन ठाकुर, एवं कामेश्वर ठाकुर
दरअसल कर्णाट वंश के अंतिम शासक हरिसिंह देव के विश्वासपात्र राज पुरोहित कामेश्वर झा, आज के समस्तीपुर जिला अर्न्तगत पूसा प्रखण्ड के ओइनी गांव के ही निवासी थे, इतिहास का पन्ना उलटने से यह ज्ञात होता है कि नान्य देव के परवर्ती शासकों के द्वारा, जगतपुर निवासी हिंगू ठाकुर के पुत्र एवं जयपति ठाकुर के पौत्र नाथ ठाकुर को सरैसा परगना का ओइनी गांव स्कॉलरशिप के तौर पर दान में मिला था, जिसके कारण नाथ ठाकुर, ओइन ठाकुर के नाम से जाने गये, ओइन ठाकुर के प्रपौत्र एवं लक्ष्मण ठाकुर के ज्येष्ठ पुत्र कामेश्वर ठाकुर थे,
कामेश्वर ठाकुर के सम्बन्ध में विस्तार से जानने के लिए हम आपको आज से सात सौ वर्ष पीछे लेकर चलते है, समय है तेरहवीं शताब्दी का, जब सुल्तान फिरोजशाह तुगलक बंगाल पर आक्रमण के उपरान्त, 1323 ई. मे गंगा के तटवर्ती इलाके से होकर वापस बिहार से गुजर रहा था,तब उसे मिथिला के कर्णाट वंशी राजा हरिसिंह के राज्य के बारे में जानकारी मिली, उसने हरि सिंह की राजधानी सिमरांव गढ़ (वर्तमान में नेपाल के बारा जिला) पर धावा बोल दिया, लेकिन राजा हरिसिंह ने उसका उचित प्रतिरोध का आभाव जानकर, अपने राज दरबार के राज पुरोहित कामेश्वर झा को शासन भार सौंप कर नेपाल के भीतरी इलाके में, परिवार सहित हिमालय की ओर पलायन कर गये,
आगे चलकर 1353 में सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने कामेश्वर ठाकुर को ही मिथिला का करद राजा ( किराया देने वाला राजा ) नियुक्त किया । और यहीं से इस ओइनवार राजवंश का नाम चर्चा में आया, और इसी कारण से इनके वंशज ओइनवार राजवंश के नाम से पुकारे गये, बाद में इसी राजवंश के संभवत: गयारहवें या बारहवें शासक हरिसिंह या नरसिंह के समय इस राजवंश के शासकों के द्वारा, ओइनवार की राजधानी मधुबनी जिला के सुगौना में स्थापित किया जिसके कारण ये सुगौना राजवंश के नाम से भी पुकारे गये,
4 ओइनवार राजवंश के शासक
कामेश्वर ठाकुर द्वारा स्थापित इस राजवंश के प्रथम चार शासक भोगेश्वर ठाकुर, एवं गणेश्वर ठाकुर के द्वारा शासन प्रबन्धन का कार्य ओइनी से किये जाने का साक्ष्य, ऐतिहासिक शोध ग्रन्थों से प्राप्त होता है,
गणेश्वर ठाकुर की हत्या हो जाने के बाद, इनके उत्तराधिकारी छोटे एवं अव्यस्क पुत्र मां के साथ निर्वासित जीवन बिताने के लिए अपने ही राज्य में छिपने को विवश हो गये, ऐसी परिस्थ्िति में ओइनी से करीब दस किलोमीटर दूर कल्याणपुर प्रखंड में बूढ़ी गण्डक नदी के समीप निर्जन जगह पर इन्होंने शरण ली,जो आगे चलकर यह गांव वीरसिंह पुर/ विरसिणपुर के नाम से जाना गया, इस ऐतिहासिक घटना का जीवन्त चित्रण विद्यापति ने अपनी पुस्तक कीर्तिलता में किया है,
गणेश्वर ठाकुर के पुत्र वीरसिंह, कीर्तिसिंह एवं राज सिंह करीब बीस से तीस वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत करने को विवश हुए, आगे चलकर इन्हों ने जौनपुर के शासक से सहयोग प्राप्त करके अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त किया, इस युद्ध में अपने पितृ हन्ता अलसान को युद्ध में परास्त करते हुए, गणेश्वर ठाकुर का ज्येष्ठ पुत्र वीरसिंह वीरगति को प्राप्त हुए, मंझला पुत्र कीर्तिसिंह 1401 में मिथिला का शासक हुए, कीर्तिसिंह एवं राज सिंह की कोई संतान नहीं था,
कीर्तिसिंह के उपरान्त, कीर्तिसिंह के दादा के भाई, 1410 ई. में भव सिंह वृद्धा अवस्था में राज सिंहासन पर कुछ माह के लिए आरूढ़ हुए, भव सिंह की मृत्यु के बाद , भव सिंह के पुत्र देवसिंह देव शासक हुए,जिन्हों ने पहली बार ओइनी से राजधानी हटाकर लहेरियासराय के निकट देकुली में राजधानी स्थापित किया, इस तरह ओइनी करीब पचहत्तर वर्षों के आस पास राजधानी के रूप में शासन का केन्द्र बिन्दु बना रहा,
5 विद्यापति की कर्मस्थली ओईनी
मिथिला क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले, जो विद्यापति की पदावली एवं नचारी न सुना हो, विद्यापति के जन्म के सात सौ साल के बाद भी विद्यापति का व्यकितत्व सिनेमाई करिश्मा से परिपूर्ण है, विद्यापति के गीतों की मिठास और सपाट बोधगम्यता,आम लोगों के जिह्वा पर काविज हो गया है, यही कारण है कि सिनेमा के पर्दे पर राजकपूर साहव से लेकर आज के कलाकारों को, विद्यापति बार बार आकृष्ट करते हैं, विद्यापति की पदावली एवं नचारी गाकर शारदा सिन्हा स्वयं को गौरवांन्वित महसूस करती है,साहित्य एवं इतिहास के ऐसे कितने ही अन्वेषी छात्र एवं अध्यापक है, जिनके शोध का केन्द्र बिन्दु आज भी विद्यापति ही हैं ,
सवाल उठता है कि विद्यापति का किशोरावस्था क्या ओइनी में व्यतीत हुआ है,
महाकवि विद्यापति ने अपने साहित्य में निजी जीवन के बारे में चर्चा नहीं के बराबर की है, किन्तु जनमानस में प्रचलित मान्यताओं के अलावे विद्यापति के साहित्य एवं समकालीन टीका टिप्पणी में इस ओर इशारा मिलते हैं,
विद्यापति के बारे में अधिकांश तथ्य विद्यापति के साहित्य और जनश्रुति से ही प्राप्त हो रहे है, विद्यापति के बारे में मान्यता है कि विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर, राजा गणेश्वर के राज दरबार में सभा पंडित थे, मान्यता यह भी है कि विद्यापति अपने पिता के साथ राजा गणेश्वर के राज दरबार में हमेशा जाया करते थे,
यहां यह ध्यान देने की आवश्यकता है, राजा गणेश्वर की राजधानी ओइनी में ही था, और विद्यापति अपने पिता के साथ राजा गणेश्वर के राज दरबार में बराबर जाया करते थे, विद्यापति का घर मधुवनी जिला के विस्फी ग्राम में था, ओइनी से विस्फी की दूरी लगभग सत्तर किलोमीटर है,
सवाल उठता है कि विद्यापति ओइनी स्थित राजा गणेश्वर के राज दरबार में विस्फी से अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ, पैदल, रथ घोड़ा, आदि सवारी के माध्यम से ही आते रहे होंगे, रास्ते मे गण्डक, बागमती, कमला, जैसी तीन नदियों का पार घाट है, यह कहीं से संभव नहीं है,कि विद्यापति ओइनी स्थित राजा गणेश्वर के राज दरबार में अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ, यहां नित्य आते रहे होंगे, इस परिस्थिति में संभावना यह है कि विद्यापति के पिता गणपति ठाकुर ओइनी स्थित राजा गणेश्वर के राज दरबार, या इसके आस पास ही निवास करते थे, राजा गणेश्वर का शासन काल 1360-1371 इस्वी रहा है, और इस समय विद्यापति की अवस्था दस से बारह साल की रही होगी,
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विद्यापति शिवसिंह के बाल सखा थे,यहां एक तथ्य और सामने आता है, विद्यापति विद्या अध्ययन पंडित हरिमिश्र के सानिध्य में किया था, पंडित हरिमिश्र का भतीजा पक्षधर मिश्र विद्यापति के सहपाठी थे,
संभव है कि राजा शिवसिंह भी पंडित हरिमिश्र के गुरू कुल में रह कर पढ़ाई किया हो, साथ ही राजा गणेश्वर के पुत्र कीर्ति सिंह, राज सिंह, एवं वीर सिंह का अध्ययन स्थल पंडित हरिमिश्र का गुरू कुल ही रहा हो, विद्यापति ने कीर्ति सिंह, एवं शिवसिंह के सम्बन्ध्ा में खुद को,खेलन कवि कहा है, पंडित हरिमिश्र के गुरू कुल की स्थिति पर अनुसंधान की आवश्यकता है,
तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विद्यापति कम उम्र में ही रचना करने लगे थे, और करीब बीस वर्ष की अवस्था में उन्हों ने कीर्तिलता की रचना की थी, विद्यापति अपने साहित्य में ही स्वयं को खेलन कवि कहा है, और यह तथ्य विद्यापति के ओइनी में कुछ समय ब्यतीत किये जाने की ओर इशारा करते हैं, या स्पष्ट रूप से कहा जाए तो विद्यापति का बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था ओइनी में कीर्ति सिंह, एवं शिवसिंह के साथ बीता है,
विद्यापति ने कीर्ति सिंह के राजत्व काल (1402-1410) में कीर्तिलता का प्रणयन किया था, और उस समय राजधानी ओइनी ही था, विद्यापति ने 1402 से 1405 ईस्वी के बीच कीर्तिलता की रचना को पूरा किया था, संभवत: इसी समय विद्यापति ओइनी राज दरबार में राज पंडित के पद पर आसीन हो चुके थे,
6 ओइनी गांव का पुरातात्विक महत्व
आधिकारिक रूप से 1353 में सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने कामेश्वर ठाकुर को मिथिला का करद राजा ( किराया देने वाला राजा ) नियुक्त किया था, और तब से 1526 ईस्वी तक ओइनी गांव मिथिला राज्य के इतिहास में चर्चा का केन्द्र बिन्दु बना रहा, पुसा स्टेशन से एक किलो मीटर उत्तर वैनी गांव में दो डीह है, जिसे शिवसिंह डीह के नाम से जाना जाता है, दोनो डीह के बीच में सौ मीटर की दुरी है, पश्चिम वाले डीह पर बकायदा पंचायत भवन का नींव डालकर इस गांव के इतिहास को मटियामेट करने का भरसक प्रयास किया गया है, वहीं पूरव की और वाले डीह पर स्थानीय ग्रामीणों के द्वारा मंदिर बनाकर धार्मिक कार्य किया जा रहा है, हॉला कि इस स्थल के आस पास नरसिंह मंदिर होने की चर्चा रही है, जिसके अवशेष का कुछ टुकड़ा खेतों से जुताई के क्रम में यहां मिला है, इस काले पत्थर के इस टुकड़े को देखने पर नरसिंह भगवान की आकृति का अनुमान किया जा रहा है, यहां मिट्टी के बरतन, काले पत्थर की मूर्ति का खंडित अवशेष, अल्युलिनियम का कड़ा, मानव कंकाल, जांता, कौड़ी, घिसा हुआ सिक्का, प्राप्त हो चुका है़, जो अवशेष प्राप्त हो रहे हैं, उनमें गुप्त काल, एवं मुगल काल के अवशेषों की प्राथमिकता है,

स्थानीय विद्वानों की मान्यता है कि ओइनी गांव को दो बार विदेशी आक्रान्ताओं ने पददलित किया था, पहली बार राजा गणेश्वर की हत्या के उपरान्त अलसान के सैनिकों ने ओइनी में भयंकर रक्त पात मचाया था, एक विशेष वर्ग के पूजा स्थल, मकान, जमींदोज कर दिए गये थे, राज दरबार से जुड़े कर्मचारियों को जिंदा दफना दिया गया, ओइनवार राजवंश से जुड़े सभी लोग ओइनी से पलायन करने को मजबूर हो गये थे, अलसान के सैनिकों का ताण्डव आस पास के पचास किलोमीटर के इलाके में स्थित, भगनावशेष मंदिरों के टीले पर आज भी दिखता है, दूसरी बार राजा शिवसिंह के पंचगौड़ विजय के बाद, जौनपुर के शर्की शासक इब्राहिम शाह के आक्रमण के समय दरभंगा के गजरथपुर को नेस्तनाबूद करने के उपरान्त शिवसिंह की पैतृक राजधानी ओइनी को पुन: तहस नहस कर दिया गया, जिसके कारण ओइनी का अस्तित्व फिर से मिट्टी में मिल गया,

वैनी में दो तरह का पुराना कुआं दिख रहा है, जो अभी सुरक्षित अवस्था में है, वैनी पंचायत के वार्ड संख्या बारह, माली टोला के कुऑ में घर का गंदा पानी गिराया जा रहा है, जिसके उम्र का सत्यापन अभी नहीं हो पाया है, इसका व्यास एक से सवा मीटर के करीब है,
शिवसिंह डीह के उत्तर जमुआरी नदी के पश्चिम वैनी मठ है,जो अब जीर्ण शीर्ण अवस्था में है, इस मठ के मकान को देखने से लगता है, कि इसका निर्माण तीन से चार सौ साल पूर्व किया गया होगा, लेकिन इसी मठ के मकान की नींव को देखने से ऐसा लगता है कि इसके नीचे के हिस्से का ईंट अलग प्रकार का है, और ऐसा महसूस होता है कि नींव के उपर के भाग का निर्माण, किसी विध्वंस के बाद निर्माण किया गया संरचना है,
वैनी मठ के सटे दक्षिण तालाब है, वहीं मठ के सटे उत्तर पुराना कुआं है, मठ के समीप के कुआं का ईंट, एवं मठ के मकान के नींव का ईंट एक समान है, जिसे लोग बोल चाल में खजुरिया ईंट कहते हैं, संभवत: मठ का कुआं एवं मठ के नींव का हिस्सा गुप्त काल के पहले की संरचना है,
शिवसिंह डीह से प्राप्त मृदभांड पूर्वोत्तर गुप्त काल की है, जिसकी पुष्टि केन्दिय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन निदेशक फणिकान्त मिश्र के द्वारा किया जा चुका है, वैनी मठ के वर्तमान मठाधीश महन्त डाक्टर नरसिंह दास के मुताबिक इस मठ से जुड़े दो और मठ थे, जो संरचना में इसी प्रकार के थे,
25 जून 2011 को वैनी के शिवसिंह डीह पर नर कंकाल मिल चुका है, जब कि वहां एवं इसके आस पास श्मशान होने का प्रमाण कहीं से प्राप्त नहीं होता है, स्थानीय लोगों के मुताबिक कंकाल की मुद्रा बैठने की स्थिति में था, 25 जून 2011 से पूर्व, इस स्थल से एक और नर कंकाल प्राप्त हो चुका था, नर कंकाल के सम्यक जांच के प्रति प्रशासनिक रवैया उदासीन रहा है, जिसके कारण आज तक नर कंकाल पर रहस्य नुमा चादर पड़ा हुआ है,
वैनी के शिवसिंह डीह पर अतिक्रमण का मामला चिंता का विषय है, इस स्थल को तहस नहस किये जाने का समुचित प्रयास किया जा रहा है, पंचायत सरकार भवन के नाम पर डीह की बेतरतीब खुदाई करके, भवन निर्माण की आर में बहूमूल्य पुरातात्विक अवशेषों को चुन चुन कर गायब कर दिए जाने की चर्चा जन सामान्य में है,

आज शिवसिंह डीह के जमीन को खेत के रूप में आबाद किया जा रहा है, शिवसिंह डीह से आधा किलोमीटर पूरब काली माता का प्राचीन गहवर है, जहां इसके चारों ओर नया निर्माण किया जा चुका है, इस स्थल को देखने से एवं शिवसिंह डीह के समीप होने से लगता है कि यह भाग कभी शिवसिंह डीह का ही हिस्सा रहा होगा,
अब यहां सिर्फ एक डीह बची है, और बची है सिर्फ ओइनवार राजवंश की यादें, जिसके सात पुश्तों के सत्रह शासक कभी मिथिला राज्य पर 174 वर्षों तक शासन किए, लेकिन इस राजवंश को याद किय जाने के और भी कारण है, इस राजवंश के शासकों ने भौतिकता को छोड़कर आध्यात्मिकता को प्रश्रय दिया, ओइनवार राजवंश के शासकों ने साहित्य एवं कला की समृद्धि के लिए अपने राज दरबार को हमेशा खुला रखा, जिसका परिणाम यह हुआ कि, इस क्षेत्र से इस राजवंश का आश्रय पाकर गोनू झा, गंगेश उपाध्याय, विद्यापति, दामोदर मिश्र, मुरारी कवि, श्री दत्त , हरिहर, जैसे दर्जनों विद्वान मिथिला साहित्य के आकाश में आज भी चमक रहे हें,
राजा शिवसिंह के बाल सखा महाकवि विद्यापति जिस मिट्टी में खेल कर जवान हुए, दिल्ली, जौनपुर, एवं दक्षिण बिहार के साम्राज्य लोभी अलसान दोस्ती के आर में जिस धरती पर रक्तपात मचाया, करीब पचहत्तर वर्षों तक मिथिला राज्य की राजधानी के रूप में शासन का केन्द्र बिन्दु रहा, वह स्थल, जिला स्तर पर महत्वपूर्ण स्थलों की सूची में शामिल नहीं है। प्रशासनिक उपेक्षा का खामियाजा यहां हर स्तर पर देखने को मिल रहा है, सिर्फ पांच पंक्ति में इसके इतिहास बोध पर रौशनी डालकर कर्तव्यों का इतिश्री कर लिय गया है,
हांला कि स्थानीय स्तर पर यहां के ग्रामीणों के द्वारा विद्यापति कर्मभूमि उत्थान मंच के माध्यम से इस स्थल को विकसित किए जाने को लेकर प्रशासन के समक्ष लगातार मांग की जाती रही है, विद्यापति कर्मभूमि उत्थान मंच के अध्यक्ष रमेश झा, उर्फ गुलाब झा प्रशासन की घोर उपेक्षा से दुखी है ,
जिले भर मे विद्यापति से सम्बन्धित एक विद्यापति नगर ही है। जबकि यहाँ उन्होंने सिर्फ पतितपावनी गंगा का आह्वान किया था और मोक्ष प्राप्त किया था। जहाँ विद्यापति ने अपना बहुमुल्य समय बिताया उस ओईनी का सरकारी स्तर पर कोई नाम लेने वाला भी नहीं है। अब तो इस गुमनामी का दंश झेल रही एतिहासिक धरती के एक हिस्से पर पंचायत सरकार भवन की बुनियाद डाल कर इस इतिहास को मिटाने की कोशिश किया जा रहा है, दूसरे शब्दों में कहे तो यह स्थल धीरे धीरे प्रशासनिक अतिक्रमण का शिकार होने लगा है, जिन्हें इस स्थल का विकास करना चाहिए था, उनके द्वारा पंचायत सरकार भवन बनाकर इस स्थल की महत्ता को विनष्ट किया जा रहा है,